SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २५८ ) जैन सुबोध गुटका | तारणहार है । पापियों का शीघ्र ही, करती या बेड़ा पार है, कुपंथ में जाते वचाया हमें ॥ १ ॥ पाप हजारों हो चुके, परदेशी नामा भूप से । जब दया धारण करी, वह बच गया भव कूप से । उनका देकर के न्याय सुनाया हमें || २ || राजा भेघरथ ने बचाई, फाक्ता की जान है । उसी दया के योग से हुए शांतिनाथ भगवान हैं, उन्ह ने शांति का पाठ पढ़ाया हमें || ३ || सरून दिल को जो बना के, पाप करते लापता । श्रकत के बीच में होगा सजा वह अफता | नहीं फर्क इसी में दिखाया हमें ॥ ४ ॥ प्रभु नाम का आधार है, भवसिंधु रूपी पूर में साल पिच्चासी पौष का कहे चौथमल केसूर में, पालो दया राखुन यह सिखाया हमें ॥ ५ ॥ , 1 ३५७ शान्ति स्तुति, ( तर्ज - छेटी बड़ी सईयांएं ) शान्ति जिनन्दजी श्रो, शान्ति तो वरतावना ॥टेक॥ विश्वसेन, राजा के नन्दन, राजा के नन्दन । हुए अचला के कुंख, स्वार्थसिद्ध से श्रावना ॥ १ ॥ जन्म लेते ही, मृगी निवारी, हां मृगी निवारी | घर घर मंगलाचार, गावे तो बधावना || २ || पट् खण्ड केरी, विभूति जो त्यागी, विभूति जो त्यागी । लेकर संयम भार, केवल का
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy