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________________ (२१६) जैन सुबोध गुटका । - ॥ सुगुरु० ॥ ४ ॥ मेरे आनन्द का दिन आया, दर्श जिनपर का मैं पाया, हुआ सत्र कार्य मन चाया, मिली मुझे समकित की माया ॥ दोहा । उन्नीसे सट साल में, कानोड़ चौमासो ठाय, गरुं हीरालाल प्रसाद चौथमल, जोड़ सभा में गाय खोजना करों अरे नर नार ।। सुगरुक ३०४ कर्म . (तर्ज-दादरा) अजब तमाशा. कर्म संग, जीव यह करे । नशेके बीच होके, जैसे सूझ ना परे ॥ टेक । कभी तोराजा होके, शीश छत्र यह घरे । कभी मुहताज होय दर, मांगता फिरे ॥ अजब० ॥ १॥ जो देव हुा सामने, नृत अप्सरा करे। कभी हार वनी पुष्पका, सुन्दर के मन हरे ।। अजय ॥ २॥ कभी तो हीरा होके, कनक बीच में जड़े । कभी तो वैर होके दवा, जूतों के तले ।। अजय ॥ ३॥ सेठ होके नाम किया मुल्क में सरे। कभी गुलाम होय, देखो नीर यह भरे ॥ अजव०॥४॥ कमी.हुआ बलवान, कभी हो निवल...डरे । . कहे चौथमल निजरूप, सुमरने से दुख ढरे । अजब ॥ ५॥ ... ३०५ सखा : (तर्ज-भर भर जाम पिलाओं गुल लाला बना के मतवाला) ' एक धर्म साथ में श्रावेरे चेतन, धर्म साथ में आय
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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