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________________ ( २०६ ) जैन सुबोध गुंटका | २६३ शरीर नाशवान् · (तर्ज - पनजी मूंडे बोल ) : १. काया काचीरे, २ कर धर्म ध्यान में कहूं छू सांचीरें || टेर || देखी सुन्दर काया काची, जामें जीव : रह्यो राचीरे । भीतर भगार है बहार कलि, या लिजे जांचीरे ॥ काया० ||१|| इस काया का लाड़ लड़ावे, मल मल स्नान करावेरे । निरख काच में पेच झुका, पोशाक सजावेरे || काया० || २ || गुलाब मोगरा को श्रत्तर डारी, मूंछो वंट लगावेरे । केशर चंदन को तिलक लगा, सेलों में जावरे || काया० || ३ || कंठी डोरा गोप गला में, काना मोती सोहेरें । तन छाया निरखतो चाले, पर गोरी से. मोहेरे || काया० ॥ ४ ॥ सीयाला में विदाम का सीरा, ग्रीष्म भांग ठंडाईरे । चौमासा में खावे मिठाई, बाग में जा रे || काया ||५|| इष्ट कन्त रत्न करिन्डिया ज्यू. रखे ! शीत लग जावेरे । चाहे जितना करो यतन यह नहीं रहावेरे || काया० || ६ || सन्त कुमार चक्रवर्ती की प्यारी देह पलटारे । काया के वश वन का हाथी, दुःख उठावेरे ॥ काया ० || ७ || इस काया का क्या विश्वास पानी बीच पताशारे । होली जैसे देवे. फूंक, जावे जब श्वासारे || काया० ॥ ८ ॥ उत्तम मनुष्य की काया ऐसी, फिर. मिले कब पाछीरे । दया दान तप करणी करले, या ही आच्छी रे || काया० ॥ ६ ॥ उन्नी से बहोत्तर वसन्त पञ्चमी, [ a
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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