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________________ (१२००१) जनसुोध गुटका । आता। कभी० ॥४॥ दुल्हा दुलहनके सग, मिला के दस्त श्रापस में घने कल्प वृक्ष की छांया.सनर, हरगिज नहीं श्राता ॥ कमी० ॥ ५॥ त्रिखण्डी नाथ भी कहला, हो मण्डल का अधिकारी । स्वर्ग के भोग भी भोगे, सबर हरगिज नहीं आता ।। कभी० ॥ ६ ॥ चौथमल कहे भोगों सें, गया नहीं तम हो कोई। निजात्म ज्ञान के पार, सबर हरगिज नहीं आता ॥ ७ ॥ تصفین . २८६ हमारा फर्ज. (तज:-दादरा) चेतो तो जल्दी चेतलो, चताते हैं जी हम । मोक्षका जो रास्ता दिखात है जी हम ! टेर ॥ लेना है क्या आपसे दिलमें करो तो गौरं । फक्त नर्क पड़ते को बचाते हैं जी हम ॥ चेतो० ॥ १॥ धर्मोपदेश परोपकार, करना है मेरा । अपने फर्ज को अदा अब, करते है जो हम चतो० ॥२॥ जुल्म छोड़ प्रति जाँड, रूद्गुर से अब । जाहिल की सौवत तर्क कर, कहते है जी हम ॥ चतो० ॥३॥ यह राग द्वेष की अंगन, अनंत काल से लगी। छांट छांट ज्ञान जल, बुझते है जी हम ॥ चेतो ।। ४ ।। गुरु हीरालाल प्रसाद चौथमल कहे सुनो । दया धर्म साफ तोर से, जिताते है जी हम ॥ चेतो० ॥ ५ ॥
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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