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________________ अन गुरोध गुटका। (TE) - . un-0. . . . ph . . ॥ ३ ॥ यह कर भलाई सन के साथ, न कीजिये पुरो। नहीं याचे साध धन माल, कुटुम्ब रहे धरी ॥ अव०॥ ४॥ यह जैन धर्म दान तप की, नाव प चढ़ो। कहता है चौथमल चार, गत से टरो।। भव ॥ ५ ॥ २७३ सखियों की वाता. (तर्ज-लापसी लंगड़ी) व्यसन बाज सातों की पदमन, पनघट पे गई नीर भरत । सातों के.पति हैं, व्यसनी भापस में गुफ्तगु लगी करन । टेर।। पहली सली कहे मुनोरी सजनी, मेरा पिया ध्रुवारी हैं । सर पर की पूंजी, लेजाके जुश्रा बीच में हारी है । लफा चौक लीलान फाटका में, उमर निताई सारी है। कहां तन पर गहना, पासा रहा लहंगा या रही सारी है । मेने समझाया अति उनले राजा नल का करा मुमरन । सातो.॥१॥ दृनी सखी कहे सुनोरी सजनी, मेरा पिया पीता है शराव । वन पन दोनों, इसी के बीच करता है सारा खराब । बेहोश हो गरे जमी पर कुरो भी करते पैशाव । में शरमाऊ नगर नहीं प्रीतम छोड़े गंधा याम । भारत दो गारत इसी में, यादव का होगमा गरन ॥सातो० ॥ २॥ तीजी सली कहे सुनारी सजनी, मेरे पिया खाता है. मांस सरत दिल है. दया देवी नहीं करती हृदय निवास I जिसका करे पास परी! वो मनु प्रापि लिखते है स्वास । आव नरस में, भौर यहाँ पर वो पाये अति वास । बप तप नी दान पुण्य फल,
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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