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________________ (१५८) जैन सुबोध गुटका। के मर भी गये । यह मुल्क मेरा यूं कहते. गये, तो तूं कौनसी बाग की मूली असल में ॥ ४ ॥ जो प्यारी के महल में रहते अमन में, वो खाते हवा सदा बाग चमन में । मुनि चौथमल कहे तो सजन, जो ऐसे गय न समझत अजल में ॥ ५ ॥ २३६ कलिकालादर्श, (तर्ज- लावनी अष्टपदी) कहूं पंचम आरे का बयान, पहले ही फरमागये भगवान ॥ टंर । शिष्य कहे भापो गुरुदयाल, वर्तसी कैसा पंचमकाल, गुरु कहे शहर गांवड़ा होय गांवड़ा श्मशान सा जोय ॥ दोहा ।। कितनेक कुलकी स्त्री, वेश्या के सार । राजा होसी जम सरीखा, अल्प सुखी नर नार ॥ मिलतः ।। लालची होवेगा परधान ।। १०॥१॥ पुत्र न माने शाप की कहन, शिष्य कम चले गुरु की एन, दुर्जन के होवेगा धनधान, सज्जन अल्प सुखी धनवान ॥ दोहा।। परचक्री भग देश में, वस्ती अल्प कतार । होसी ब्रह्मण धन का लोभी, जमी दुर्मिक्ष विचार ।। मिलत ॥ साधु भी छोड़ेगा निज स्थान |॥ २॥ समदृष्ट देव मनुष्य कम होत, मिथ्याति देव मनुष्य है बहुत । विद्या मंत्र का कम परभाव, मनुष्य को दुर्लभं देव दर्शाव ।। दोहा । गोरस में रस थोड़ो जानजी, नहीं धर्म में चित्त उदार । ताकत धन जिन्दगानी
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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