SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन सुबोध गुटका। (१५१) पाठवें, क्यों नहीं जोवरे ॥६॥ धन्ना सेठं भव दान दिया से, हुश्रा ऋपम जिरायारे । नम राजुल दाखा का धोवन पूर्व वहरायारे ॥७॥ तीजा स्वर्ग का इन्द्र हुभा देखो भगवती महिरे । चार तीरथ ने पूरवभव,साता उपजाइरे ॥८॥ ऐसा जान के दीजे दान, तू सीख हृदय में धरजेरे । गुरु प्रसादे चौथमल कहे, भव सागर तिरजेरे ॥६॥ २३० शिवपुर पथ प्रदर्शक गुरु, (तर्ज-म्हाने मोतीड़ा मोलायदो म्हांको यही झगड़ो) मुझे गुरुजी वतावेगा, शिवपुर नगरी ।। टेर।। सुमति सुन्दर दो कर जोड़ी, ऐसी करी अरदास । सोच करो मत वालमारे, पूर्ण होगा पास | मुझे० ॥ १ ॥ जो लब्धी धारी नहीरे, जो नहीं जिनराज । अणगार भगवंत आज विराजे; तरण तारण की जहाज ॥२॥ मंदसोर में बड़ा मुनिवर, जवाहिर मुनि अणगा। ऐसा सद्गुरु थान मिल्या, तो निश्चय देगा तार ॥ ३॥ पूज्य महाराज है गुणवंता, और घणा मुनिराज गुरु हीरालालजी सर्वे सुधारे, चौथमल का काज ॥ ४ ॥ -~___.२३१ कुचाल त्याज्य. . . (तर्ज-चालो २ मुगतगढ मांई) कुचाल चतुर तज देना, मानों २ सद्गुरु का तुम
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy