SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन सुवोध गुटका। पें करो विचारा॥ ३॥ चौथमल कहे तू अविनाशी। पाप पुण्य संग रूप आकारा ।। ४ ।। man २२४ तारा.का प्रत्युत्तर. (तर्ज-चनजारा) - . कहे तारा अर्ज गुजारी, पिउ चाकरणी मैं थारी ॥टेर ॥ मेरे सिरके ताज, कहलातो, थे इतना कष्ट उठावो जी । देखो तकदीर हमारी । पिउ० ॥१॥ कहां राज तख्त मंडारा, कहां मणी, मोतियां के हाराजी,करी हारी ॥ २ ॥ अहो लखते जिगर तुम प्यारे, अहो ! मुझ नैनों के तारेजी प्रभुःविपदा कैसी, डारी ॥ ४ ॥ कहे हरिश्चन्द्र रानी ताई, नहीं उठे घड़ो दे उठाइजी, जब रानी करत पुकारी ॥ ४॥ कर जोड़ी चोली रानी, मैं भलं विष के पानी जी, लगती है छोत यह भारी ॥ ५॥ पिऊ जैसा सत्य तुम्हारा, मुझे मेरा भी सत्य प्याराजी, इस कारण यह लाचारी ॥ ६॥ पिउ देखी दुख तुम्हारा, मुझे लगता , है बहुत कराराजी,लेकिन सत्य भी न छुटे लगारी ॥७॥ फिरः रानी तरकीब बताई, लियोः हरिश्चन्द्र घड़ो उठाइजी, गया:दोनों निज.२ द्वारी ॥८॥ ऐसे विरले मनुष्य हैं. पाना, संकट में सत्य निभाना जी,:- हुआ हरिश्चन्द्र जहारी ॥६॥ सत्य से लक्ष्मी पावे, मन वंछित सम्पत आवेजी,
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy