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________________ (१२४) जैन सुवोध गुटका। - हो लहाई । चौथमल सांच नौका ने, कई पापी को तारा है॥४॥ १६२ भरतको श्रीराम की शिक्षा. (तर्ज--विना रघुनाथ के देखें नहीं दिलको करारी है) __ कहे. श्रीराम भरत ताई भैया वात सुन लीजे । बैठ के अवध की गादी, अदल इन्साफ ही कीजे ॥ कहे०॥ टेर ।। पर स्त्री मात सम जानी, कमी महोब्बत में मत फंसना । लोभ को त्याग पर धनमें, भंग मर्याद ना कांजे ॥१॥ नीच इन्सान की संगत, कभी मत भूल के करना। अदू के सामने भैया, सदा ही शूरमा रहजे ॥२॥ विपत् और सम्पदा दोनों, शुभाशुभ कर्म के फल हैं। धीयता धार जननी को, सदा विश्वास तू दीजे ॥३॥ नसीहत देके वन अन्दर, चले सीयाराम व लक्षमण । चौथमल कहे जाते यू, प्रजा की पालना कीजे ॥४॥ १६३ प्रभु से अपराधों की क्षमा मांगना. .::. (तर्ज-प्रासाबरी) - मैं तोह जी श्रोगनगारो, नाथ मम किस विधि पार उतारो ॥टेर ॥ कामी, क्रोधी, चोरं, अन्याई, लोभी और धूतारो । इत्यादिक औगुण बहु भरिया, कैसे सुधरे जमारो। बड़ो यो उपजे विचारो ।। नाथ ॥१॥ भक्त बनी ने तुझ कु समस, लज्जा आत तिवारो । मुझ कर्तव्य छीपे नहीं तोसुं,
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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