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________________ (१२२) जैन सुवोध गुटका! : नीर भरु पणिहार ।। ५ ॥राणी वचन काने सुनी. राज होगये दंग । रानी कुंवर ने देखनेरे, करवत वेगई अंग ॥६॥ राजा मन विचारीयो रे, करनो कौन उपाय । नारी गहेने मेलतारे, जग बदनामी थाय ॥७॥ बदनामी से मत डरोरे, सुण प्राणेश्वर नाथ । कायर मत वे सायबा, क्षत्राणी अंग जात ॥८॥राजा कहे रानी सुनारे, पूर्व पुन्य प्रकार । धन्य थारी जननी प्रतिरे, मुझ घर ऐसी नार ।। ६॥ गुरु हीरालाल प्रसाद सुं, चौथमल यूं गाय । सत्यधारी के सत्य प्रभावे, मिले कुटुम्ब सुखदाय ॥ १० ॥ · १८६ नवधा भक्ति दिगदर्शन, (तर्ज-आशावरी) __ या नवधा भक्ति धारो, जासे सुधरे नर अवतारो॥ टेर॥ प्रथम ब्रह्मचर्य अवस्था में शिक्षा सम्भारो।मात पिता आचार्य गुरु की, हो भक्ति करनारो ॥ या० ॥१॥ श्रवण भक्ति पहली सो प्रभु, गुण सुनके धारो। कीर्तन भक्ति दुजी, सो गुण स्वयं उचारो॥२॥ स्मरण भक्ति तीजी है ये, स्वभावी जप विचारो। पाद लेवणा भक्ति चौथी, पर के प्राण उबारो॥३॥ अर्चन भक्ति पांचवी, करे सर्व को सतकारों। पाद वन्दन भक्ति षष्टी, नम्रता हृदय विचारो॥ ४॥ दास भक्ति कहो सातमी चाकर वन चरनारों । संखा भक्ति करों अष्टमी, मित्र भाव संसारों ॥५॥ श्रातम निवेदन भक्ति सो तो, परमात्म पद हो सारो। चौथमलःकहे ऐसी भक्ति, सर्व फल दातारो॥६॥
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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