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________________ जैन सुबोध गुटका | AAAA F श्री जिनवर का, धार २ हो पार ॥ ५ ॥ चौथमल कहे गुरु हीरालाल, जहां के नमो चरणार ॥ ६ ॥ १७४ कूंच का नकारा. ( तर्ज - बिना रघुनाथ के देख नहीं दिल को करारी है ) दिला गाफिल न रहे मूरख, कुंच का यह नकारा है । दमादम जा रहा मकलूक, कौन यहां पर तुमारा है | टेर ॥ मुसाफिर खाना है दुनियां, एक श्रता एक जाता है । उठाके चश्म तो देखो, चंद दिन का गुजारा है ॥ दिल० ॥ १ ॥ पचा के मुफ्त का खाना, फुलाया गाल को तुमने । सताते हो गरीबों को, वहां इन्साफ सारा है ॥ २ जुल्म करना न मुशकिल है, मुशकिल रहम का करना । नेकी करते रहम रखते । घो हो ईश्वर का प्यारा है ॥ ३ ॥ घूमते हो गरूरी से, बड़े सज धज के धागों में । मगर मत भूलना प्यारे, ऐसे हुए हजारां है ॥ ४ ॥ गुरु हरिलाल के परसाद, चौथमल कहे सुनो लोकों । बसे जिन ध्यान तजो अभिमान, तो सुधरे काज • सारा है ॥ ५ ॥ 2 ( ११३ ) h १७५ ममता. (तर्ज- तू, म्हारो बावो रे बाबा ) पापिन ममतारे ममता, या चाहे है मन गमता ॥ टेर ॥ पुराय योग मनुष्य भव पायो, जिस पर ध्यान नहीं धरता । पेश आराम में मगर मस्त तृ, होय चोकरां फिरता ॥ पा० ॥ १॥ तन धन यौधन कुटुम्ब सभी को, मेरा २ करता। दिन रेनी 'धंधा में लागो, श्रावण भैंस ज्यं चरता ॥ २ ॥ कर२ मंगता जगह बंधाई, अभिमान तू करता । पाप कमावे फिर हुलसाचे परभव से नहीं डरता ॥ ३ ॥ स्याल तमाशा रंग राग में, अग
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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