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________________ जैन सुवोध गुटका। सब घर के मिलके, खंधे पे धरके ॥ फूंकावेंगे अग्नि मंझार ॥ मं०॥ ७॥ इंद्र भवन और फूलों की सजां । प्यारी न श्रावेगी लार ॥ लार० ॥८॥ व्यभिचारन हो तोपर पुरुप चुलावे, तुमको दे दिलले विनार ॥ पि०॥ ६ ॥ सुकृत दुष्कृत करता सो भुक्ता, दिलमें तू करले विचार वि०॥१० ॥चौथमल कहे राजा संयती, लीना है जन्म सुधार ।। सु०॥११ !! उगणील तियोतर पालीके मांही । देताहूं शिक्षा कार ॥ वहा०॥१२॥ १३९ सतीत्व का परिचय, (तर्ज--मांड) सती सीताजी धीज करे, सत्य धर्म से संकट टरे ।। टेर ।। अग्नि कुंड रचियो केशुलम जारों भार जरे। राम और लक्षमण भरत शत्रुधन, जहां राणोराव खरे ।। सती० ॥१॥ सीया उाडी अग्नि कुंड पे, परमेष्टि ध्यान घरे। पूर्व जन्म के लेख जो लिखीया, सो टारे केम टरे ॥२॥ अयाध्या के लोक शोर मचायो, राम अन्याय करे । सीता सती चंद्रसी निर्मल, पावक बीच परे ॥ ३ ॥ नख शिस्त्रा तक जो हो निर्मल, तव कहो कौन डरे । समक्ष लोकों के देखत जव, तत्तण कूद परे ॥४॥ पुष्प वृष्टि हुई नभ से, लिया जल वीच तरे। चौथमल कहे सत्य लहाई सुर नर यश उचरे ॥ ५॥ १४० वद सौवत निषेध. (तजे-या हसीना यस मदीना, करबला में तू न जा । अगर चाहे श्राराम, तो जाहिल की सौवत छोड्दे । मान ले नसीहत मेरी, जाहिल की सोवत छोड्दे टेर ॥ शगर त
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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