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________________ (८६) जन सुवोध गुटका। - - - - - वासी, हो अविनाशी, चौथमल के रिझाने वाले । लाप्रांजी लाश्रो० ॥१॥ १३१ नेक सलाह. (तर्ज-विना रघुनाथ के देखे नहीं दिलको करारी है) मेरा तो धर्म कहने का, भला उपदेश देने का । मान चाहे तू मत माने, हुश्न तेरा न रहने का ॥ टेर ॥ अरे जाती है जिन्दगानी, जैसे बरसात का पानी । जरा तो चेत आभमानी भरोसा क्या है जीने का ॥ मेरा०॥१॥ छोड्दे जुल्म का करना जरा पाकवत से डरना । प्रेम दिलोजान से करना, समां ये लाथ लेने का ॥२॥ दुखावे मत किसी का दिल, तजो अब रात का खाना । नशाखोरी जिनाकारी, त्याग कर मांस छीने का ॥३॥ मुसाफिरखाने में रह कर,अरे ! वन्दे भजन तो कर कहे चौथमल तजो अभिमान, अरे कञ्चन के गहने का ॥ ४ ॥ -- - १३२ स्वार्थमय संसार. (तर्ज-गुलशन में भाई वहार) दुनियां तो मतलव की यार, यार मेरे प्यारे दुनियां तो मतलव की यार ॥ टेर ॥ मतलब ले महोव्यत करती है जोरु, वे मतलवले देती धिक्कार ॥ घि० ॥ दु०॥१॥ मात पिंता कहे पुत्र सपुत है, वे मतलब दे घरसे निकाल ॥ नि० ॥ २ ॥ मतलव से बेन भैया २ पुकारे, वे मतलब नहीं श्रावे तेवार ॥ ते० ॥३॥ मतलव से नाता मुर्दा से जोड़े, नहीं तो जिन्द को देवे विसार ॥ वि० ॥४॥ मतलव से वैश्या यार को बुलावे, वे मतलब वो ढादे किंवार ॥ किं० ॥५॥ दावत में दोस्त खुश
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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