SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन सुवोध गुटका । (७६) पाप की गठरी, कहां पर तुम छिपाओगे ॥ ३॥ अरे! क्या हुक्म है उसका, फेर क्या फर्ज तुम पर है। हिसाप जिस वक्त बोलेगा, वहां पर क्या बताओगे ॥४॥ गुरू हीरालाल के परसाद, चौथमल जोड़ के गाता । चौसठ के साल दिया उपदेश, अमल में कुछ भी लाश्रोगे ॥५॥ orissansar १२० चेतन को सजग करना, (तर्ज--या हसीना वस मदीना, करवला में तू न जा ) उठाके देखो चशम, दुनियां में लाखों हो गये। किस नींद मैं सोते पड़े, दुनियां में लाखों होगये ॥टेर ॥ टेड़ा दुपट्टा घांधते, पोशाक सजते जिस पे। घड़ी लगाते जेब में, दुनियां में लाखों होगये ॥ उठाके० ॥१॥ हाथ लकड़ी, पान मुंह में, लीलम के कंठे हैं गले । घूमते बाजार में, दुनियां में, लाखों होगये ॥ २॥ बग्घीके अंदर बैठके, गुलशन की खाते हवा । मशगूल रहते इश्क में, दुनियां में लाखों होगये ॥३॥ लाखों उठाते हुक्म को, भारत के सर वो ताज थे । गरीव की सुनते नहीं, दुनियां में लाखों होगये ॥४॥ इन्सान होकर गैर का जिसने भला कुछ ना किया। इवान सी खो जिन्दगी, दुनियां में लाखों होगये ॥५॥ गुरु के परमाद से, यूं चौथमल कहता तुझे। मीजाज करना छोड़दे, दुनिया में लाखों हो गये॥६॥ १२१ कुचेष्टा का परिणाम, (तर्ज-मांड) . महो मारी मानो मानो मानो मानो मानो मानोरे । श्रहो
SR No.010311
Book TitleJain Subodh Gutka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year1934
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy