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________________ -जय-प्रमाण ३४५ ३- नय अधिकार. पुष्पवत् असत् हैं। प्रमाण ज्ञान में इन दोनों में से कोई भी मुख्य व गौण नहीं। दोनों नये अपने-अपने रूप से सत्य हैं। ६१. आगम में निश्चयनय को भूतार्थ और व्यवहार नय को अभ - तार्थ कहा है। वहां भूतार्थ अभूतार्थ का अर्थ ठीक-ठीक समझना चाहिये । व्यवहारनय अभू तार्थ है, ऐसा कहने का यह अभिप्राय नहीं है कि व्यवहार नय कल्पना मात्र है या गधे के सींगवत् असत् है या व्यर्थ बहकाने के लिये कह दिया गया है । वास्तव में अपने-अपने स्थान पर दोनों सत्य हैं। ६२. भूतार्थ व अभूतार्थ का क्या अर्थ है ? जैसा पदार्थ है वैसा ही कथन करना भूतार्थ है, और जैसा पदार्थ वास्तव में नहीं है वैसा कथन करना अभूतार्थ है। ६३. निश्चयनय भूतार्थ कैसे है ? पदार्थ वास्तव में अपने गुण-पर्यायों के साथ तन्मय रहने के कारण एक अखण्ड सत्स्वरूप है व तादात्मक है । निश्चय नय उसका ऐसे ही शब्दों में विवेचन करता है, इसलिये भू तार्थ है। ६४. व्यवहारनय अभूतार्थ कैसे है ? पदार्थ की सत्ता वास्तव में अपने गुण पर्यायों की सत्ता से पृथक नहीं है, फिर भी व्यवहार नय उसका 'द्रव्य गुण पर्याय वाला द्रव्य है' 'द्रव्य में अमुक अमुक गुण हैं' इत्यादि प्रकार से भद कथन करता है । उसके कथन पर से ऐसा लगता है, मानों द्रव्यगुण पर्याय तीनों कोई भिन्न पदार्थ हों जो संयोग या समवाय सम्बन्ध द्वारा मिला दिये गए हैं। (एकात्म अभेद द्रव्य को इस प्रकार भेद रूप कहना अभूतार्थ है, गधे के सींगवत् अभ तार्थ नहीं क्योंकि उसके वाच्यभूत गुण पर्यायों की सत्ता अपने स्वरूप से है अवश्य) अथवा जितने भी दृष्ट पदार्थ हैं वे वास्तव में द्रव्य नहीं उनकी विभाव व्यञ्जन पर्याय हैं, फिर भी उन्हें द्रव्य कहता है, इस
SR No.010310
Book TitleJain Siddhanta Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaushal
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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