SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 347
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ---नय प्रमाण ३२४ १---प्रमाणाधिकार प्रकार पृथक पृथक आगे पीछे नहीं रहते। वहां ये सब मिलकर एक रस बने रहते हैं, जैसे जीरे के पानी में सारे मसालों का स्वाद एक रसात्मक होता है। अतः ज्ञान में भी उन पृथक पृथक निर्णीत धर्मों का बुद्धि द्वारा मिश्रण करके कोई विचित्र एक रसात्मक भाव बनाना चाहिये। यही अनेक नयों का मिलाना है, और वस्तु के अनुरूप होने से सच्चा ज्ञान या प्रमाण है। सकलार्थ ग्राही का क्या अर्थ ? यथा सम्भव अनेक नयों का परस्पर में एक रस रूप से मिला हुआ ज्ञान ही सकलार्थ ग्राही कहा जाता है, क्योंकि इसमें पदार्थ के सकल अर्थ अर्थात सम्पूर्ण धर्म युगपत आ जाते हैं। ७. एक धर्म बोधक होने से नय ज्ञान सच्चा नहीं है ? नहीं, क्योंकि नय के साथ ग्रहण किया गया 'स्यात्' या 'कथंचित' पद गौण रूप से अन्य धर्मो के अस्तित्व की सूचना देता रहता है इसलिये नय-ज्ञान भी सच्चा बना रहता है । 'स्यात्कार' के बिना अवश्य वह नय मिथ्या या कुनयपने को प्राप्त हो जाती है। क्योंकि तब एकान्त से एक धर्म का बोध होगा। सत्ताभूत भी अन्य धर्मों का गौण रूप से ग्रहण होने की बजाये निषेध हो जायेगा । तब वह वस्तु के अनुरूप न रहने से मिथ्या बन जायेगा। (८) प्रमाणाभास किसको कहते हैं ? मिथ्या ज्ञान को प्रमाणाभास कहते हैं। ६. मिथ्याज्ञान से क्या समझे ? पदार्थ के ज्ञान का न होना मिथ्याज्ञान है । पदार्थ के अनुरूप ज्ञान न होने का क्या तात्पर्य ? अनेक धर्मों के द्वारा पृथक पृथक निर्णय किए गए अनेक धर्मों का परस्पर में सम्मेल न बैठना और मुंह से कहते रहना कि इसमें यह धर्म भी है और वह भी । वास्तव में उस वक्ता को
SR No.010310
Book TitleJain Siddhanta Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaushal
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy