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________________ ७-स्याद्वाद ३१० ३-स्याद्वादाधिकार खोजा जाता है उस समय वही दृष्टि में होता है स्वरूप नहीं। इसलिये स्वरूप की दृष्टि के समय वह असत् और पररूप दृष्टि के समय वह असत् दीखता है। वास्तव में असत् हो जाता हो ऐसा नहीं है क्योंकि स्वरूप तो वह है ही। १८. 'स्यात्' पद के साथ एवकार या हो' का प्रयोग किस लिये ? निर्धारण अर्थात निर्णय कराने के लिये है। यदि एवकार न हो तो पदार्थ के स्वरूप के सम्बन्ध में संशय बना रहता है. कि पदार्थ आखिर क्या है-सत् रूप या असत् रूप, नित्य या अनित्य। १९. 'ही' कहने से तो एकान्त हो जाता है ? अवश्य हो जाता है, यदि इसके साथ 'स्यात्' पद न हो तो। जैसे 'देवदत्त पिता ही है' ऐसा कहना एकान्त या मिथ्या है; तथा 'देवदत्त स्यात् पिता ही है' ऐसा कहना ठीक है । क्योंकि इसका अर्थ है देवदत्त का किसी अपेक्षा से अर्थात अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता होना और पहले का अर्थ था सर्वथा पिता होना। २०. एकान्त किसको कहते हैं ? वस्तु के अनेक धर्मों को छोड़कर केवल किसी एक धर्म को स्वीकार करना और अन्य धर्मों का सर्वथा निषेध कर देना एकान्त है; जैसे कि ऊपर के दृष्टान्त में देवदत्त का केवल पितृत्व धर्म स्वीकार किया गया है। पुत्रत्व, भातृत्व आदि धर्मों निरपेक्ष एवकार द्वारा लोप कर दिया गया है। २१. एकान्त कितने प्रकार का होता है ? दो प्रकार का-सम्यक् व मिथ्या। २२. एवकार के कारण एकान्त कैसे हो जाता है ? किसी एक धर्म के साथ निरपेक्ष एवकार लगा देने से स्वतः अन्य धर्मों का निषेध हो जाता है। जैसे, 'पिता ही है' ऐसा कहने से स्वतः यह समझ लिया जाता है कि वह पुन या भाई आदि किसी का भी नहीं है।
SR No.010310
Book TitleJain Siddhanta Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaushal
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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