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________________ ३०८ ३- स्याद्वादा धिकार श्रोता की प्रकृति को अथवा परिस्थिति को अथवा अन्य द्रव्य क्षेत्रकाल भाव के विकल्पों को लेकर स्वयं निर्धारण करता है, कोई नियम नहीं कि पहिले अमुक ही धर्म कहे । ६. 'स्थात' का अर्थ तो शायद होता है ? ठीक है, परन्तु एक शब्द के कई अर्थ होते हैं। यहां उसका प्रसिद्ध शायद या संशय वाची अर्थ इष्ट नहीं हैं, बल्कि कथंचित वाला अर्थ ही इष्ट है । ७- स्याद्वाव ७. स्याद्वाद की कथन पद्धति किस प्रकार है ? 'स्यात् सत् एव' 'स्यात् असत् एव इत्यादि प्रकार से कहना स्याद्वाद पद्धति है । इसी प्रकार सभी विरोधी धर्मो के साथ समझना । ८. 'स्यात् सत् एवं' इसका क्या अर्थ है ? स्यात् सत् ही है, अर्थात पदार्थ किसी अपेक्षा से सत् स्वरूप ही है । ६. किसी अपेक्षा सत् स्वरूप होना क्या ? अपने स्वरूप चतुष्टय की अपेक्षा वह सत् ही है । इसे ही सरल भाषा में यों कह लीजिये कि पदार्थ की सत्ता स्वय अपने रूप ही होती है, जैसे घट की सत्ता घट रूप ही होती है । १०. ' स्यात् असत् एव' इसका क्या अर्थ है ? स्यात् असत् ही है अर्थात पदार्थ अपेक्षा से असत् स्वरूप ही है । ११. किसी अपेक्षा असत् स्वरूप होना क्या ? पर चतुष्टय की अपेक्षा पदार्थ असत् ही है, अर्थात सत् नहीं है । इसे ही सरल भाषा में यों कह लीजिये कि पदार्थ की सत्ता अन्य पदार्थों रूप बिल्कुल भी नहीं है । जैसे घट की सत्ता पट आदि अन्य पदार्थों रूप बिल्कुल भी नहीं है । १२. क्य प्रत्येक वाक्य के सात 'स्यात्' पद का होना आवश्यक है ? हां, स्याद्वाद की समीचीन पद्धति का यही नियम है ।
SR No.010310
Book TitleJain Siddhanta Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaushal
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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