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________________ २९० ६-तत्वार्थ २-रत्नत्रयाधिकार मिथ्याज्ञान, बड़े-बड़े साधुओं का सफल चारित्र मिथ्याचारित्र और बड़े-बड़े तपस्वियों का तप मिथ्या तप है। सम्यग्दर्शन के बिना सब कुछ मिथ्या क्यों ? सम्यग्दर्शन के अभाव में शुद्धात्मा का भावात्मक साक्षात परिचय नहीं होता। इसलिये ज्ञान का लक्ष्य व अभिप्राय केवल शाब्दिक शास्त्रज्ञान तथा तत्सम्बन्धी चर्यायें मात्र ही रहता है । इसी प्रकार चारित्र तथा तप का भी लक्ष्य व अभिप्राय केवल शरीर सम्बन्धी वाह्य क्रियायें अथवा बाद विषयों का हठ पूर्वक त्याग करना मात्र रहता है । अन्तरंग आत्मा का स्पर्श नहीं हो पाता, और उसके अभाव में वह स्वाभाविक आनन्द से वञ्चित ही रहता है। १००. प्रधान होने से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का उद्यम ही प्रयोजनीय है। ज्ञान व चारित्व से हमें क्या लेना है ? ऐसा नहीं है क्योंकि बिना सात तत्वों का विशेषज्ञान किये सम्यग्दर्शन व ध्यान होता नहीं और बिना ध्यान के अ नन्द प्राप्त होता नहीं। इसलिये अपने अपने स्थान पर सभी को प्रधान समझना। किसी एक का भी अभाव कर देने पर शेष दो की स्थिति रह नहीं सकती। ये नाम मात्र को तोन हैं वास्तव में एक ही हैं। १०१. तीन होते हुए भी एक क्यों ? क्योंकि तीनों एक साथ रहते हैं। यदि वास्तव में सम्यग्दर्शन है तो सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र अवश्यभावी हैं, भले ही कम क्यों न हों; जैसे बिना टहनी पत्तों के वृक्ष होता नहीं। १०२. ये तीनों युगपत होते है या आगे पीछे ? चौथे गुणस्थान में युगपत उत्पन्न होते हैं, परन्तु इनकी पूर्ति क्रम से होती हैं। सबसे पहिले चौथे से सातवें के अन्त तक सम्यग्दर्शन पूर्ण होता है, फिर तेरहवें गुण स्थान में सम्यग्ज्ञान पूर्ण होता है और चौदहवें के अन्त में सम्यग्चारित्र पूर्ण होता है।
SR No.010310
Book TitleJain Siddhanta Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaushal
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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