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________________ ६-तत्वार्थ २७६ २-रत्नत्रयाधिकार प्राय कहते हैं । जिस प्रकार खेती करने में किसान का अभिप्राय धान्य प्राप्ति है, भूसा नहीं, भले ही भूसा स्वतः प्राप्त हो जाये उसी प्रकार प्रत्येक धार्मिक क्रिया करने में सम्यग्दृष्टि का प्रयोजन ज्ञायक भाव की प्रतीति करना है, पुण्यादि नहीं, भले ही पुण्य स्वतः प्राप्त हो जाये। २३. रुचि किसको कहते हैं ? अन्तरंग से कोई कार्य विशेष करने की प्रेरणा को रुचि कहते हैं । जिस बात की रुचि होती है, उसके लिये अवश्य ही भरसक प्रयत्न किया जाता है। जिस प्रकार लौकिक व्यक्तियों को धन कमाने की रुचि है और इसलिये वे उसे प्राप्त करने को नित्य अथक परिश्रम करते हैं; उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि को शुद्धात्मप्राप्ति की या ज्ञाय भाव निष्ठा की रुचि है और इसलिये वह उसे प्राप्त करने को नित्य अथक परिश्रम व तपश्चरण करता है। २४. प्रतीति किसको कहते हैं ? अन्तरंग में अनुभव करने को प्रतीति कहते हैं । अनुभव भी इसी का नाम है। जिस प्रकार किसान को हरा भरा खेत देखकर हर्ष की प्रतीति होती है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि को आत्मदर्शन में अपूर्व आल्हाद व आनन्द की प्रतीति होती है। उसे ही शुद्धात्मानुभूति आत्मदर्शन कहा जाता है । २५. श्रद्धा किसको कहते हैं ? 'यह ही बात ठीक है, यह तीन काल में भी अन्यथा हो नहीं सकती' ऐसी दृढ़ आस्था को श्रद्धा कहते हैं। जिस प्रकार लौकिक व्यक्तियों को विषय भोगों में ही सुख है' ऐसी श्रद्धा होती है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि को 'शुद्ध ज्ञायक भाव ही स्वयं आनन्द स्वरूप है, उसे आनन्द या सुख के लिये किसी भी बाह्य विषय का आश्रय लेने की आवश्यकता नहीं' ऐसी श्रद्धा होती है।
SR No.010310
Book TitleJain Siddhanta Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaushal
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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