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________________ ६-तत्वार्थ २७० १-नव पदार्थाधिकार इष्टानिष्टपने की बुद्धि तथा इनमें ही रुचि लगे रहना मेरी मिथ्या दृष्टि है । इस मिथ्या दृष्टि के कारण ही मैं नित्य इनके प्रति ही मन वचन व काय द्वारा अपनी समस्त शक्ति को प्रवृत्त करता रहता हूँ, यही आस्रव तत्व है। पुनः पुनः प्रवृत्ति करने के कारण तज्जन्य रागादि के संस्कार अन्दर ही अन्दर बराबर दृढ़ होते जा रहे हैं, जो पुनः पुनः मुझे उनके प्रति ही प्रवृत्त होने को उकसाते रहते हैं; वे संस्कार या वासनाय ही बन्ध तत्व हैं। वीतरागी गुरुओं का उपदेश सुनने से अपनी इस भारी भल को जान लेने पर मैं अवश्य ही अपनी इस मन वचन काय की बहिर्मुखी प्रवृत्ति को रोकने के प्रति सतत प्रयत रहता हूँ, यही संवर तत्व है। इस प्रवृत्ति रूप आस्रव में कमी पड़ने के कारण अन्तरंग में कुछ निगकुलता का आभास होने लगता है, जिससे आकर्षित होकर मैं अधिकाधिक शक्ति को निराकुलता के लिये प्रयुक्त करता हूँ। यथाशक्ति अनशनादि बाह्य तप तथा ध्यान आदि अभ्यन्तर तप करता हूँ, जिनके कारण उन दढ़ व पुष्ट संस्कारों व वासनाओं की शक्ति क्षीण होती जाती है, और इधर आत्मबल बढ़ता जाता है; यही निर्जरा तत्व है। धीरे धीरे संस्कार नष्ट हो जाते हैं और आत्मा की ज्ञानानन्द आदि शक्तिये पूर्ण विकसित हो कर खिलखिलाने लगती हैं, यही मोक्ष तत्व है । इस प्रकार जीव में सर्व आस्र वादि के भावात्मक विकल्प प्रत्यक्ष अनुभव किये जा सकते हैं। ६७. अजीव में सात तत्वों की सत्ता कैसे देखो जाये ? कर्म और नोकर्म वर्गणायें अजीब तत्व हैं । जीव के रागादि रूप भावास्रव का निमित्त पाकर वह जीव प्रदेशों के प्रति आकर्षित होती हैं; यही आस्रव तत्व है। आने के पश्चात वह जीव प्रदेशों के साथ बन्धकर अष्ट कर्म व शरीर का निर्माण करता
SR No.010310
Book TitleJain Siddhanta Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaushal
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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