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________________ ६-तत्वार्थ २६८ १-नव पदाधिकार ५१. भाव पुण्य रूप वह शुभ प्रवृत्ति कैसी होती है ? दया, दान, शील, संयम, तप, उपवास, पूजा, भक्ति आदि अनेक प्रकार की है। ५२. द्रव्य पुण्य किसको कहते हैं ? भाव पुण्य के निमित से बन्धने वाली द्रव्य कर्मों की प्रशस्त प्रकृतियें द्रव्य पुण्य कहलाती हैं । (देखो अध्याय ३) ५३. पाप किसको कहते हैं ? अशुभ कर्म को पाप कहते हैं । ५४. पाप कितने प्रकार का है ? दो प्रकार का-भाव पाप व द्रव्य पाप। ५५. भाव पाप किसको कहते हैं ? जीव के मन वचन व काय की अशुभ प्रवृत्ति को भाव पाप कहते हैं। ५६. भाव पाप रूप वह अशुभ प्रवृत्ति कौन सी है ? पांच हैं-हिंसा. झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह । ५७. द्रव्य पाप किसको कहते हैं ? भाव पाप के निमित्त से बन्धने वाली द्रव्य कर्मों की अप्रशस्त प्रकृतियें द्रव्य पाप कहलाती हैं। (देखो अध्याय ३) ५८. सातों तत्वों में पुण्य पाप क्यों नहीं कहा? वहां इनको आस्रव व बन्ध तत्वों में गर्भित कर दिया गया है। ५६ तत्व व पदार्थ में क्या अन्तर है ? कोई विशेष अन्तर नहीं; केवल पुण्य पाप की विशेषता बताने के लिये सात तत्वों में पुण्य पाप का पृथक से ग्रहण कर लिया गया है। ६०. पुण्य पाप को पृथक से दर्शाने की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि पुण्य व पाप ही इस लोक में सर्वत्र प्रधान है। ६१. जीव व अजीव ये दोनों पदार्थ द्रव्य के भेदों में भी गिनाए गए और तत्वों में भी। द्रव्य के प्रकरण में जीव व अजीव का अर्थ प्रदेशात्मक आकृति
SR No.010310
Book TitleJain Siddhanta Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKaushal
PublisherDeshbhushanji Maharaj Trust
Publication Year
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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