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________________ जैन सिद्धांतसंग्रह । [ ६५ एक करोड़' मुनि 'मोक्ष'गये हैं॥ १८ ॥ श्रीरेसंदीगिर (नयना गिर) जीसे वरदत्त आदि पांच मुनि मोक्ष गये हैं ॥ १६ ॥ मथुराजी से जम्बूस्वामी पांचवें कालके अंतिम केवली मोक्ष गये हैं ॥२॥ सर्व मोक्ष गामी जीवों और निर्वाणक्षेत्रोंकी में त्रिकाल वन्दना करता हूं || • इन 1 (६) श्री दर्शन पच्चीसी : } तुम निरखत मुझको मिली, मेरी संपति आज । कहा चक्रवति संपदा, कहा स्वर्ग साम्राज ॥ १ ॥ तुम वंदत जिन देवजी, नित नव मंगल होंय | विघ्न कोटि तत्क्षण टरें; लहहिं सुयश सब लोय ॥ २ ॥ तुम जाने बिन नाथजी, एक 'स्वांस के मांहि । जन्म मरण अठारा किये, साता पाई नांहि ॥ ३॥आन देव पूजत लहे, दुःख नरकके बीच । भूख प्यास पशुगत सही, करो नाम उच्चारत सुख लहे, दर्शनसे पूजत पावे देव पद, ऐसे हैं बंदत हूं जिनराज मैं, घर उरं निरादर नीच ॥ १ ॥ अघ नाय । " जिनराय ॥ १ ॥ समताभाव । तन धन जन जग-जालसे, घर विरागता भाव ॥ ६॥ • त्रिभुवनके आधार । बेगि करो उद्धार ॥ ७ ॥ सुनो अरज हे नाथ नी, दुष्ट कर्मका नाश कर, याचत हूं मैं आपसे, मेरे जियके मांहि । राग द्वेषकी कल्पना, क्यों हूं उपने नांहि ॥ ८ ॥ ·
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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