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________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। 'पंचमि आरति सर्वसाधुकी, आठवीस गुण-मूल घर। पंचमहावत पंचसमितिघर इन्द्रिय:पांचा दमन करें। 'पटुझावश्यक केशलोंच इक बार ख़ड़े भोजन करते। . दाँतण खान त्याग भू सोवत, यथाजात मुद्रा धरते ॥ या विधि "पन्नालाला" पंचपद, पूनत भवदुख नशनाई । सवजन मिलकर ॥६॥ इस प्रकार आरती बोलकर नीचे लिखा लोक, दोहा और -मत्र पढ़कर आरतीको मस्तक चढ़ावें । 'यस्तोधमान्धीकृत विश्वविश्वमोहान्धकारप्रतिघातदीपान् । -दीपैः कनकाश्चनमाननस्थैर् जिनेन्द्रसिद्धान्तयतीन योऽहम् ॥१॥ दोहा-स्वपरप्रकाशनज्योति अति, दीपक तमकरहीन । जासूं पूजूं परम पद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥१॥ । (३) आलोचना पाठ। दोहा-वंदो पांचों परम गुरु, चौबीसी निनरान । करूं शुद्ध आलोचना, शुद्ध करनके कान ॥ ॥ सखी छन्द (१४.मात्रा) सुनिये मिलः अरज हमारी, इम: दोष.किये अति. भारी.॥ : तिनकी समितिकाज़ा, तुम चरन लही मिनराना ॥ २॥. इक बे ते चंउँ इंद्री वामनरहित सहित जे.जीवा.. तिनकी नहिं करुना धारी, निरदई है.घात विचारी ॥ ३॥ समरम्म समारम्भ भारम्भ, मनवचतन कीनो प्रारम्म ।
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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