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________________ AAR ४४] जैनसिद्धांतसंग्रह। भवभवके पातक कटें, दुःख दूर हो जाय ॥१॥ तत्पश्चात् नीचे लिखे दो अथवा एक कवित्त पढ़कर शास्त्रजीको (मिनवाणीको) साप्टांग नमस्कार करके शास्त्रनी सुनना चाहिये। अथवा थोड़ी बहुत किसी भी शास्त्रकी स्वाध्याय करना चाहिये। कषित्त। वीरहिमाचलते निकसी, गुरुगौतमके मुख कुंड डरी है। मोहमहाचल भेद चली, जगकी जड़तातप दूर करी है। ज्ञानपयोनिधिमाहिं रली बहुमंग तरंगनिसों उछरी है। ता शुचि शारद गंगनदीप्रति मैं अँजुलीकर शीस घरी है ॥१॥ या जगमदिरमें अनिवार अज्ञान अधेर छयो अति भारी॥ श्रीजिनकी धुनि दीपशिखासम, जो नहिं होत प्रकाशनहारी ।। तो किस भांति पदारथपांति, वहां लहते, रहते अविचारी। या विधि संत कहें धनि हैं धनि, हैं मिनवैन बड़े उपकारी || रात्रिको भी इसी प्रकार दर्शन करके तत्पश्चात् दीप धूपसे नीच लिखी अथवा जिस पर रुचि हो वह आरती करना चाहिय। पंचपरमेष्ठीकी आरती। चाल खडी। मनवचतनकर शुद्ध पचपद, पूनों भविनन सुखदाई । सबनन मिलकर दीप धूप ले, करहुं आरती गुणगाई ।।टेक॥ प्रथमाह श्री अरहंत परमगुरु, चौतिस आतिशयं सहित वसे ॥ प्रातिहार्य व अतुल चतुष्टय, सहित समवसृत माहिं लस ।
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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