SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 406
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जन सिद्धातसंग्रह । [ ४४५ दोहा - तन मल रहित मतुल्य बळ, भारत हैं मिनराज ॥ ये दश अतिशय जनमके, भाषे श्रीगणराज ॥ ३ ॥ ॐ ह्रीं सहनदशातिशयप्राप्ताय श्रीजिनाय वर्ध नि० ॥ पडरी छंद । केवल उपजे अतिशय सुजान । सो सुनो भव्य जन चित्त मान ॥ शत योजन चारों दिशा माहिं । दुर्भिक्ष तहां दीखे सो नाहिं ॥४॥ माकाशगमन करते जिनेश । प्राणीका घात न होय लेश ॥ कवला महार नाहीं करात । उपसर्ग विना दीखे सो गात ॥ १ ॥ चतुरानन चारों दिशा जान । सब विद्याके ईश्वर महान || छाया उनकी नाहीं सो होय । टिमकार पर्कक लागे न कोय ॥१॥ नख केश वृद्धि ना होंय जास। ये दश मतिशय केवळ प्रकाश ॥ तिनको हम बन्दें शीसनाय । भव भवके अघ छिनमें पलाय ||७|| ॐ ह्रीं केवलज्ञान जन्मदशा तिशय सुशोभिताय श्रीजिनाय अर्ध ॥ चौबोला- जब देवनकृत चौदह अतिशय, सो सुन लीने भाई । सकल परथमय मागधि भाषा, सब जीवन सुखदाई ॥ मैत्रीभाव सकल नीवनके, होत महां सुखकारी । 'निर्मल दिशा उसें सब ओरी, उपजे आनंद भारी ॥८॥ अरु निर्मल आकाश विराजत, नीळवरन तन घारी । . ! 3 षट्ऋतुके फल फूल मनोहर, लगे दुमकी डारी ॥ दर्पण सम सो धरनि तहाँकी, अति जिय आनंद पावे । निष्कंटक मेदनि विराने, क्यों कवि उपमा गावे ॥९॥ मन्द सुगन्ध वयारि वृष्टि, गन्धोदककी चहुँपाई । हरषमई सत्र सृष्टि विराजे, आनंद मंगलदाई ॥
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy