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________________ ४३४ ] जैनसिद्धांतसंग्रह। वे मति निर्दय घात ही, यह अति दीनविषाय ॥१९॥ वण वेदननीकी करें, ऐसे कर विश्वास । सींचे खारे क्षार सों, ज्यों मति उपने त्रास ||५|| बेई जकड़ मनीर सो, खेचि खभते वाधि। . . सुधि कराय अघ मारिये, ताना भायुध साधि ॥ ५॥ मिन उद्धत अभिमान सों, कीने परमव पाप । तपत लोह भासन विष, त्रास दिखा थाप ॥ १२ ॥ वाती पुतली कोहकी, काय लगावें अंग। प्रीति करी मिन पूर्व भव, परकामिनके संग ॥ ५ ॥ कोचन दोषी नानिक, लोचन हिं निशक। मदिरा पानी पुरुषकों, प्यावे वो गाळ ॥ ५ ॥ 'मिन मंगन सों मघ किये, तेई छेदे नाहिं। पल भक्षण के पाप ने, नोड़ २ कर खाहिं ॥ १५ ॥ केई पाव वरकों, याद दिवावे नाम । कहि दुर्वचन अनेक विधि पर कोय संग्राम ।। ५६ । भये विक्रिया देह सों, बहु विधि मायुध जात । तिनही सो अतिरिस भरे, करें परस्पर घात ॥ १७॥ . सिथिल होय चिर युद्धते, दीन नारकी नामि । हिंसानंदी असुर दुठ, मान करावे ताम ||६८॥ सोरा-त्रिसिय नरक परयंत, मसुरो दीरघ दुःख है। . म.पो नैन सिद्धान्त, अमर गमन आगे नहीं ॥ १९ ॥ दोहा-इहि विधि नरक निवासमें, चैन एक पल नाहिं। सपै निरन्तर नारकी, दुख दावानल माहि ॥ ६॥ .
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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