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________________ जनसिद्धांतसंग्रह। प्रकाशविय गति भो, थिति धर्म अधर्म सुमाव है । परिवर्तन लच्छन काल घरै, गुणद्रव्य मिनागम गाँव है । हो कहा । इक बीव अरु धर्मधर्म, दरव ये मध्य असंख्यप्रदेशी है । आकाश अनंतप्रदेशी है, ब्रह्ममंड अखंड अलेशी है ॥ पुग्गलकी एक प्रमाणू सो यद्यपि वह एकप्रदेशी है । मिलनेकी सकति ग्वमावीसौं होता बहु खंध मुलेशी है ।। हो करु ॥४॥ कालाणु मिन्न असंख भणू मिलनेकी शान घारा है। तिस कायाकी गिनतीमें, नहिं काल दरवको धारा है हैं स्वयंसिद्ध पदन्य यही इनहींका सर्व पसारा है। निर्वाष नथारथ लच्छन इनका, जिनशासनमें सारा है | हो कर ॥॥ सब जीव अनंत प्रमान कहे, गुन लच्छन ज्ञायकवंता है । तिसते जड़ पुगल मूरतकी, हैं वर्गणरास अनन्ता है ॥ तिसत सब भावियकाल समयकी, रास अनन्त मनता है। यह भेद सुमेदविज्ञान विना क्या औरन को दरसंता है । हो।।६। इक पुग्गलकी अविमाग अणू कितने नममें थिति कीना नी । तितनेमहँ पुग्गल जीव अनंत बसें धर्मादि अछीना बी ॥ अवगाहन शक्ति विचित्र यही, नमकी वरनी परवीनानी। इसही विधिसों सब द्रव्यनिमें गुन शक्ति बसै अनकोना भी हो. ॥७॥ इक कालं अणूपरते दुतिगेपर नाति जवै गत मंदी है । इक पुग्गलकी अविभाग मणू, सो समय कही निरहंदी है । इसत नहि सूच्छमकाल कोई, निरमंश समय यह छंदी है । याते सब कालप्रमान बंधा, वरनी श्रुति नैति.निनंदी हैं । हो। जब पुग्गलकी अवि. भाग अणू, अतिशीघ्र उताल चलानी हक समयमाहि सो
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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