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________________ जैन सिद्धांतसंग्रह। [ ३४३ दिलदर्द कहा, तिसका तुमने दुःख हाना है। अध छोटा मोटा नाश तुरत. सुख दिया तिन्हें मनमाना है। पाबको शीतल नीर किया, औ चीर बढ़ा असमाना है। भोजन था जिसके पास नहीं सो किया, कुबेर समाना है। श्री ७॥ चिंतामणि पारस कल्पतरू सुखदायक ये परवाना है। तुत्र दासनके सब दास यही, हमरे मनमें ठहराना है । तुव भक्तनको सुरहंद्रपदी, फिर चक्रपतीपद पाना है। क्या बात कहों विस्तार बड़ो वे पाव मुक्ति ठिकाना है ॥ श्री॥ ८ ॥ गति चार चौरासी लाखविर्षे चिन्मूरति मेरा भटका है । हो दीन बंधु करुणानिधान, अबलों न मिटा वह खटका है । जब जोग मिला शिवसाधनका, तब विधन कर्मने हटका है ।। तुम विघन हमारा दूर करो, प्रभु मोकों आश 'तुमारा है ॥ श्री. ॥९॥ गज ग्राहप्रसित उद्धार लिया. ज्यों भनन तस्कर तारा है । ज्यों सागर गोपदरूप किया मैनाका संकट टारा है ॥ ज्यों सुलीते सिंहासन औ वेडीको काट विडारा हैं । त्यो मेरा संकट दूर करो, प्रभु मोको आश तुमारा है ॥ श्री. ॥ १० ॥ ज्यों फाटत टेकत पांय खुला, औ सांप सुमन करि डारा है । ज्यों खड्न कुसुमका माल किया, बालकका जहर उतारा है । ज्यों सेठ विपत चकचूरि पूर, घर लछभी सुख विस्तारा है। त्यों मेरा संकट दुर करो प्रभु, मोको आश तुमारा है ॥११॥ नद्दपि तुमको रागादि नहीं. यह सत्य सर्वथा जाना है। चिनमूरत आप अनंत गुनी, नित शुद्ध दंशा शिवथाना है। तद्दपि भक्तनकी भीति हरो, सुख देत तिन्हें जू सुहाना है । यह शक्ति अचिंत
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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