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________________ जैनसिद्धांतसंग्रह। । ३४१. लागे सहन सरूपमें, तनौं ममत निवार ॥ ते गु० ॥१०॥ पूरख भोंग न चिंत३, आगम वांछा नाहिं । चहुंगतिके दुखसौं डरें, सुरत लगी शिवमाहि ॥ ते गुः ॥ ११ ॥ रंगमहलमें पौड़ते, कोमल सेन विछाय । ते. पच्छिम निशि भूमिमें, सोवें सवरि काय तें गु० ॥१॥ गज चढ़ि चलते गरबसौं, सेना सनि चतुरंग। निरखि निरखि पग वे धरै, पॉल करुणा अंग ॥ ते गु० ॥१॥ वे गुरु चरण जहां घर, जगमें तीरथ नेह । सो रन मम मस्तक चढ़ो, 'भूधर' मांगे तेह ।। ते गुः ॥१४॥ . प्रभु पतितपावन मैं अपावन, चरन आयौ शरनजी । यौ विरद आप निहार स्वामी. मैंट जामन मरनजी ॥ तुम ना पिछान्या आन मान्या, देव विविध प्रकारनी । या बुद्धिसेती निज न जाण्या, श्रम गिण्या हितकारजी - ॥ १॥ भवविकटवनमें करम वैरी, ज्ञानधन मेरो हरयो.। तब इष्ट भूल्यो प्रष्ट होय, अनिष्टगति धरतो फिरयो ॥ धन घड़ी यो धन दिवस यौ ही, धन जनम मेरो भयो । अब भाग मेरो उक्ष्य आयो दरश प्रभुको लख लयो ।॥ २॥ छबि वीतरागी नगनमुद्रा दृष्टि नासापै धेरै। वसु प्रातिहार्य अनन्तगुणयुत, कोटिरविछविको हरें ।। मिट गयौ तिमिर मिथ्यात मेरौ, उदय रवि आतम भयौ । मो उर हरख ऐसो भयो, मनु रंक चिंतामाणि लयौ ॥३॥ मैं हाथ जोड़ नवाय मस्तक, वानऊं तव चरणनी। सर्वोतकृष्ट त्रिलोकपति मिन, सुनो तारन तरनजी। जांचूं नहीं सुरवास पुनि नरराज परिजन साथजी! 'बुध ' जांचहूं तुव भक्ति भव भव दीजिये शिवनाथनी ॥४॥
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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