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________________ २४४] नैनसिद्धांतसंपा। . (१७) देवपूजा। दोहा-प्रभु तुम रामा भगतके, हमें देय दुख मोह । तुम पद पूजा करत हूं. हम करना होहि ॥१॥ ॐ ही अष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशद्गुणसहितश्रीमिनेन्द्रभगवन् अत्र अवतरावर । सौपेट् । * ही अष्टादश्चदोषरहितपटचत्वारिंशदगुणसहितप्रीमिनेंद्रभगवन् अत्र तिष्ठ तिष्ट । : । ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशदगुणसहितश्रीनिंद्रभगवन् मत्र मम सन्निहितो भव भव ! वटै । बहु तृपा सतायो, अति दुख पायो, तुम भायो, नळ लायो। उत्तम गंगामड, शुचि अति शीतक, प्राशुक निर्मक, गुन गायो । प्रमु अतरनामी त्रिभुवननामी, सबके स्वामी, दोष हरो! यह अरन सुनीने, दीक न कीन, न्याय करीजे, दया घरो ॥१॥ ॐही अष्टादशदोषरहिषटचत्वारिंशदगुणसहितनीमिन्द्र भगवदम्यो जन्मभरामृत्युविनाशनाय नई निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ अवतपत निरंतर, अगनिपटतर, मो र अंतर. खेद कयौँ । के बावन चंदन, दाहनिकंदन, दुमपदवंदन, हरप धरयो प्रमु०॥ *ही बटादशदोषरहितषट्चत्वारिंशद्गुणसहितश्रीमिनेम्यो मवातापनाशाय चंदनं०॥ १ संवोपडिति देवोद्देशेन इविस्त्यागे । २० इति बृहप्पनौ । ३ पपडिति देवोदयकहविस्त्यागे ।
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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