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________________ जनसिद्धांतसंग्रह। [२.१. विदभ वितृष्ण विदोष विनिंद्र | परात्पर शंकर सार वितन्द्र। विकोप विरूप विश विमोह । प्रसीद विशुद्ध मुसिद्धपमूह |८ भरामरणोज्झित वीतविहार । वितित निर्मल निरहंकार । अचिन्त्यचरित्र विदर्प विमोह । प्रसोद विशुद्ध मुसिद्धसमूह ॥९॥.. 'विवर्ण विगन्ध विमान विलोम | विमाय विकाय विशब्द विशोम। अनाजुक केवळ सर्व विमोह। प्रसीड विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥१०॥ मसमसमयसारं चारुचैतन्यचिह्न, परपरणतिमुक्तं पद्मनंदीन्द्रवंद्यम्। निखिलगुणनिकेतं सिद्धचक्र विशुद्ध, स्मरति नमति यो वा स्तौति सोऽभ्येति मुक्तिम् ॥११॥ ॐ ही सिद्धपरमेष्ठिम्यो महाध्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ अडिल्ल छन्द-अविनाशो अविकार परमरस धाम हो । समाधान सर्वज्ञ सहन भमिराम हो॥ शुद्धघोष अविरुद्ध अनादि अनंत हो। जगतशिरोमणि सिद्ध सदा जयवंत हो॥१॥. ध्यानमगनिकर कर्म कलंक सबै दहे। नित्य निरंजन देव सरूपी हो रहे ॥ ज्ञायकके भाकार ममत्वनिवारिके । सो परमातम सिद्ध नमूं सिरनायके ॥२॥ दोहा-अविचलज्ञानपकाशते, गुण अनंतकी खान । ध्यान धेरै सो पाइये, परम सिद्ध भगवान ॥३॥. इत्याशीर्वादः ( पुष्पानलिं क्षिपेत् )
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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