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________________ जनसिद्धांतसंग्रह । [ १९७ जे धम्मबुद्ध महियलि थुति । जे काउस्सग्गो गिंस गर्मवि । जे सिद्धिविलासण अहिलसंति । जे पक्खमास आहार लिंति ॥९॥ गोहणं जे वीरासणीय । जे धणुह सेज वज्जासणीय । 1 । ने तवबण आयांस नंति । जे गिरिगुहकंदर विवर यंति ॥१०॥ जे सत्तुमित समभावचित । ते मुनिवरवंदउ दिढचरितं । चवीसह गंथह ने विरत । ते मुणिवरवंदउं जगपवित्त ॥ ११॥ जे सुझा णिज्झा एकचित्त । वृंदामि महारिसि मोखपत । रयणत्तयरंजिय सुद्धभाव । ते सुणिवर बंदउं ठिदिसहाव ॥१२॥ घन्त्ता ने तपसूरा, संभमधीरा, सिद्धवधू अणुराईया । रयणत्तयरंजिय, कम्मह गंजिय, ते रिसिवर मई झाईया ॥१२॥६ ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रादिगु गविराजमानाचार्योपाव्यायसर्वसाधुभ्यो महार्षं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥ · (४) देशraगुरु माषा पूजा । देवशास्त्रगुरु अडिल - प्रथमदेव अरहन्त सु श्रुतसिद्धान्तजू | गुरु निर्बंथ महन्त मुकतिपुरपन्थजू ॥ तीन रतन जगमाहिं सो ये भवि घ्याइये । तिनकी भक्तिप्रसाद परमपद पाइये ॥ १ ॥ दोहा - पूजों पद अरहंतके, पूजों गुरुपद सार । पूजों देवी सरस्वती, नितप्रति अष्टप्रकार ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः, ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह | अत्र मम सन्निहितो भव भव ।
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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