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________________ M २७४]. नसिद्धांतसंग्रह। थिरवापद छाडे । ऐसी पति परीपह उपजत तहां धीर-धीरनं उरघारें । ऐसे साधुनको उर अन्तर बसो निरन्तरसनाम हमारे ९ . ८खी परीषह-नो.प्रधान केहरिको पकडै पनग पकड पानसे चावें । मिनकी तनक देख भौं वांकी कोटिन सूर दीनता मा । ऐसे पुरुष पहाड उडाचन प्रलय पवन त्रिय वेद पया। धन्य धन्य वे सर साहसी मन सुमेर जिनका नहिं कां ॥१०॥ ९चयों परीषद-चार हात परवान परख पथ चलत दृष्टि इत उत नहिं ताने । कोमल चरण कठिन धरतीपर धरत धीर बाधा नहीं मानें ॥ नाग तुरङ्ग पालकी चढते ते सर्वादि याद नहीं आने । यो मुनिरान सहें चा दुःख त हद कर्म कुलाचल भाने ॥१२॥ १० आसन परीषह-गुफा मसान शैल तरु कोटर निवसें जहां शुद्ध भूरें । परमितकाल हैं निश्चल तन बारवार आसन नहीं फेरें ॥ मानुष देव अचेतन पशुकत बैठे विपति मान जब घरे । ठौर न त म थिरतापद ते गुरु सदा बसो उर मेरे ॥ १२॥ ११ शयन परीषह-जो प्रधान सोनेके महलन सुन्दर सेज सोय सुख जोवें। अब अचल अंग एकासन कोमल कठिन भूमिपरगावें ॥ पाहनखण्ड कठोर कांकरी गडत कोरका. यर नहीं हो शयन परीषह भात ते मुनि कर्मकालिमा धावे ।। १६ - .. . ... . ' • १२ आक्रोश.परीषह-जगत श्रीव यावन्त चराचर सबके हित सबको सुखदानी । तिन्हें. देख दुर्वचन क..खल
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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