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________________ १५२1 नैनसिद्धांतसंग्रह। होय तौ नाह न करे ॥४६॥ गती आगती कही चौवीस ।। पंचेंद्री पशुकी जिन ईस । ता परमेश्वरको पथ गहौ । चौवीसों दंडक नहिं लहो ॥ १७ ॥ विकलत्रयकी दश ही गती । दश आगति कहीं नगपती ॥ पांचों थावर विकलजु तीन । नर तिथंच पंचेंद्री लीन ॥ १८॥ इनहीं दशम उपजे जाय । पृथिवी पानी तरवर काय ॥ इनहीं ते विकलत्रय आय | इस ही दसमें जन्म कराय ॥ १९॥ नारक विन सब दंडका जोय । पृथ्वी पानी तरु वर सोय ॥ तेज वायु मरि नव मैं जाय। मनुष होय नाही सूत्र कहाय ॥५०॥ थावर पच विकल-त्रय ठौर । ये नवगति भाष मद मोर ॥ दसते आव तेन अरु वाय । होय सहीगामें मिनराय ॥५१॥ ये चौईस दंडके कहे । इनकू त्याग परमपद लहे ॥ इनमें स्लैम जगको भाव । इनते रहित सुत्रि भुवन पीव॥५३॥ नीव ईशमैं और न भेदाएकरमी वे कर्म उछेदः।। कर्मबंध नोलो नगनीव | नाशे कर्म होय शिव पीव ॥ ५३॥ दोहा-मिथ्या अव्रत योग अर, मद परमाद कषाय । इंद्रिय विषय जु त्याग ये, अमन दूरि है जाय ॥ जिन विनगति भवनै धरी, भयो नहीं सुर झार । जिन मारग उर धारिये, पइये भवदधि पार ॥१५॥ जिन मन सब परपंच तन, बड़ी बात है येह । पंच महाव्रत धारिकै, भव जलको नलदेह ।। ५६ ॥ अंतर करणजु सुध है, जिनधर्मी अमिराम । . भाषा कारण कर सकू, मापी दौलतगम ॥ १७ ॥ इति चौबीसदंडक सम्पूर्णम् ॥
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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