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________________ जैनसिद्धांतसंग्रह । ।१४ रजनी मुंजनकथा बरणई । यथा पुराणे समापति भई ॥ पापधर्मको फल यह भाय। भली लगै सो कर मन लाय ॥ ३६॥ सोरठा-प्रगट दोष अविलोय, निशमोनन करिये नहीं। - इस भव रोग न होय, परमव सब सुख संपने ॥३७॥ छप्पय-कीड़ी बुध वलहरै कंपगद करै कसारी । मकड़ी कारण पायकोढ़ उपनै दुख भारी ॥ जुआं जलोदर ननै फांस गल विथा बढ़ावै । वाक करें सुरमंग वमन माखी उपजावे ॥ तालचे छिंद्र वीच्छु मखत और व्याधि बहु करहिं थल । यह प्रगट दोष निशमशनके । परमव दोष परोक्षफल ॥ ३८॥ . दोहा-जो अघ इहि दुखंकर, परमव क्यों न करेय ।। इसत सांप पीड़े तुरत, लहर न क्यों दुख देय ॥ ३९॥ सुवचन सुनके क्रोध हो । मूरख मुदित न होय | मणिघर फग फेरे सही, नदी सांप नहिं सोय ॥ ४० ॥ सुवचन सत्गुरुके वचन, आर . न सुवचन कोय । सत्गुर वही पिछानिये, ना डर लोम न होय . ॥ ४१ ॥ भूधर सुवचन सांभलो, स्वपर पक्ष करवान । सावुत महामणी मिले, तोड़ेसे गुण कौन ॥ १५ ॥ ॥ इति श्रीभूधरदासकृत निशिमोजनकथा सम्पूर्णम् ॥ . . . . - ३० वमन-रटी घरदमाखी खा जानेसे होती है।
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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