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________________ ij नसिद्धतिसंग्रह रहे ॥२॥ नेक न करतें ग्लान बाब मलिन मुनिजन लखें। नाही होत अनान तत्त्व कुतत्त्व विचारमें ॥३॥ उरमें दया विशेष गुण प्रगटें औगुण ढकें । शिथिल धर्ममें देख जैसे तैसे विरकर. ॥४॥ साधी पहिचान करें प्रीति गोवच्छसम । महिमा होय महान् धर्म कार्य ऐसे करें ॥५॥ मद नहीं जो नृप वात मद नहीं भूपतिवानको । मद नहीं विमव लहात मद नहीं सुन्दर रूपको ॥६॥ मद नहीं होय प्रधान मद नहीं तनमें बोरका । मद नहीं मो विद्वान् मद नहीं सम्पति कोषका ॥णा हुवो आत्मज्ञान तम रागादि विमाव पर । ताको हो क्यों मान जात्यादिक व अथिरका ॥ ८॥ वंदत हैं अरिहंत मिन मुनि जिन सिद्धांतको । नवे न देख महन्त कुगुरु कुदेव कुधर्मको ॥९॥ कुत्सित मागम देव कुत्सित पुन सुरसेवकी प्रशंसा षट् भेव करें न सम्यक्वान हैं ॥ १० ॥ प्रगटो ऐसा भाव किया अभाव मिथ्यात्वका.. ... बन्दत बाके पांव बुपनन मनवचकायसे ॥ ११॥ अथ पंचम दाल। . जिसमें बारह ब्रतका वर्णन है। " मनहर छन्द-तिथंच मनुष दोय गतिमें। व्रत धारक. श्रद्धा चितमें । सो अगलित नीर न पावें। मिशि भोजन तने मिभकमल-मलका फूल चाहे जितना पानी हो पानीसे अपर ही रहता है ऐसा समदृष्टि घरमें बहकर भी अपने परिणाम गृहस्थीसे भलग भोर धर्मसे तल्लीन रखता है। नगरनारोश्या । १० कुस्थित भागम देवकुदेष कुशाखको सेवा प्रशंसा समुहष्यो,
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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