SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 6.1: नैनसिद्धांतसंग्रह। मैं यह परद्रव्य. विख्यात ॥ चेतनके गुण निजमाहिं घरे । पुदलं रागादिक परिहरे ॥ २८ ॥ आप मगन अपने गुणमाहि । जन्म मरण भय मिनको नाहिं ॥ सिद्ध समान निहारत हिये । कर्म कलक सवहि तन दिये ॥ १९ ॥ न्यावत आप माहिं नगदीश । दुहुंपद एक विराजत ईश ॥ इहविधि सुवटा ध्यावत ध्यान । दिन दिन प्रति प्रगटत कल्यान ॥३०॥ अनुक्रम शिवपद नियका भया । सुख अनंत विलसत नित नया ।। सतसंगति सबको सुख देय। जो कछु हियमें ज्ञान घरेय ॥ ३१ ॥ केवलिपदः आतम अनुभूत | घट घट रानत ज्ञान संजूत ॥ सुख अनन्त विलस निय सोय । नाफे निनपद परगट होय.||३२|| सुवावचीसी सुनहु सुजान निजपद प्रगटत परम निधान । सुख अनन्त विलसहु ध्रुव नित्त । 'भैयाकी' विनती घर चित्त ।। ३३ ॥ संवंत सत्रह त्रैपन माहिं । अश्विन पहले पक्ष कहाहि ॥ दशमी दशे दिशां: परकाश । गुरु संगति ते शिव सुखमास । (२३) एकीमामाया। दोहा-चादिरान मुनिराजके, चरणकमल चित लाय । . भाषा एकीभावकी, करूं स्वपरसुखदाय ॥ • जो मति एकीमाव भयो मानो अनिवारी । सो मुझ कर्म प्रवन्ध करत भव भव दुःखमारी || नाहि तिहारी भक्ति नगत. रविनो निरवारैः। तो अव और कलेश कौनसो नाहि विदारै ।। तुम जिन जोतिस्वरूप-दुरित अंघयार निवारी-1. सो गणेश गुरु.
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy