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________________ - जैनसिद्धांतसंग्रह। [१७. कथनी किरणाबलि, लगत 'भर्म बुधि भागी। भव तन भोग स्वरूप विचारो परम धर्म अनुरागी ।। या संसार महा वन भीतर, मर्मत छोर न आवे । जन्मन मरन जरा दव दाहे, जीव महा दुख पावे ॥ ३ ॥ कवई जाय नरक पद भुने, छेदन भेदन भारी । कबहूं पशु पर्याय घरे वहां, षध बंधन भयकारी । सुरगतिमें पर सम्पति देखे, राग उदय दुख होई । मानुष योनि अनेक विपति मय, सर्व सुखी नहीं कोई ॥१॥ कोई इष्ट वियोगी विलखे, कोई अनिष्ट संयोगी। कोई दीन दरिद्री दीखे, कोई तनका रोगी॥ किस ही घर कलिहारी नारी, कै बैरी सम, भाई । किस हीके दुख बाहर दखि, किसही उर दुचिताई ॥५॥ कोई पुत्र विना नित झुरै, होई मरे तब रोवे । खोटी संततिसे दुख उपने, क्यों प्राणी सुख सोर ।। पुण्य उदय जिनके तिनको भी, नाहिं सदा मुख साता। यह जगवास यथारथ दीखे, सवही ह दुखदाता ॥६॥ ॥६॥ नो संसार विपै सुख हो तो, तीथकर क्यों त्यागे। काहेको शिव साधन करते, संयमसे अनुरागें । देह अपवान अथिर पिनावनि इसमें सार न कोई। सागरके जलसे शुचि कोने, तो भी शुद्ध न होई ॥ ७ ॥ सप्त कुधातु भरी मल मूतर, चर्म लपेटी सोहै । अन्तर देखत या सम जगमें, और अपावन को है ॥ नव मलद्वार अवै निशि वासर, नाम लिये घिन आवे । व्याधि उपाधि अनेक जहां तहां, कोन सुधी सुख पावे ॥ ८॥ पोषत तो दुख दोप करे अति, सोपत सुख उपनावे । दुर्जन देह स्वभावं वरावर; मूरख प्रीति बढ़ावे ॥ राचन योग्य स्वरूप न याको विरचित योग्य सही है । यह तन पाय ‘महां तप कोने, इसमें
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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