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________________ १०० जैनसिद्धांतसंग्रह। मन थिरता करके तुम चिंतो, चौ आराधन भाई। येही तोकों सुखकी दाता, और हित कोक नाई ॥ .. आगे बहु मुनिरान भये हैं तिन गहि थिरता भारी। " बहु उपसर्ग सहे शुभ भावन, आराधन उर धारी ॥ १९ ॥ तिनमें कछु इक नाम कहूं मैं सो सुन जिय ? चित लाके । मावसहित अनुमोद तासें, दुर्गति होय न जाके ॥ . अरु समता निज उरमें आवै, भाव अधीरज जावे। : । यों निश दिन नो उन मुनिवरको, ध्यान हिये विच लावे धन्य धन्य सुकुमाल महामुनि, कैसी पोरन धारी । एक श्यालनी युगबच्चायुत, पांव भखो दुखकारी॥ यह उपसर्ग सो समभावन आराधन उर धारी। . तो तुमरे जिय कौन दुख है ! मृत्यु महोत्सव वारी ॥३॥ . धन्य धन्य जु सुकौशल स्वामी, व्याघ्रीने तन खायो। तो भी श्रीमुनि नेक डिगे नहि, आतमसों हित लायो। यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी। तो तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव वारी ॥३२॥ देखो गजमुनिके सिर ऊपर विप्र अगिनि बहु वारी। शीस जले जिम लकड़ी तिनको, तो भी नाहिं चिगारी॥ यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी। मै तुमरे जिय कौन दुःख है ? मृत्यु महोत्सव वारी ॥३॥ सनतकुमार मुनीके तनमें, कुष्टवेदना व्यापी। छिन्न छिन्न तन तासौं हुवो, तब चिन्तो गुण आपी। यह उपसर्ग सहो घर थिरता, आराधन चित धारी ।
SR No.010309
Book TitleJain Siddhanta Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
PublisherSadbodh Ratnakar Karyalaya Sagar
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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