SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन सिद्धान्त दीपिका १२५ ५. ध्यान ६. व्युत्सर्ग ये मोक्षसाधना के अन्तरंग कारण हैं अतः इन्हें आभ्यन्तर कहा जाता है। ३७. अतिचार--दोष को विशुद्धि के लिए जो प्रयत्न किया जाता है. उसे प्रायश्चित्त कहते है। प्रायश्चित के दस प्रकार हैं : १. आलोचन--गुरु के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करना। २. प्रतिक्रमण --किए हुए पापों से निवृत्त होने के लिए 'मिथ्या मे दुष्कृतम्' मेरे सब पाप निष्फल हो --- ऐसा कहना तथा कायोत्मगं आदि करना और आगामी पापकार्यों से दूर रहने के लिए सायधान रहना। ३. तदुभय · · आलोचन एवं प्रतिक्रमण दोनों करना। ४. विवेक----आए हुए अशुद्ध आहार आदि का उत्सगं करना। ५. व्युत्मगं .... चतुविनिम्नुति के साथ कायोत्मगं करना। ६. तप . उपवाम आदि । ७. छेद-मंयम-काल को छेदकर कम कर देना। ८. मूल- पुनः वतारोपण करना। ६. अनवस्थाप्य-तपस्यापूर्वक बतागेपण करना। १०. पाराञ्चित-अवहेलनापूर्वक व्रतारोपण करना।
SR No.010307
Book TitleJain Siddhant Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1970
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy