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________________ जैन सिद्धान्त दीपिका "गिरि सरित् प्राव घोलणा" न्याय के अनुसार आयुष्यवजित सात कर्मों की स्थिति कुछ कम एक कोडाकोड़ सागर परिमित होती है, तब वह जिस परिणाम से दुर्भय राग-देषात्मक प्रन्थि के पास पहुंचता है, उसे यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं। यह करण भव्य एवं अभव्य दोनों के अनेक वार होता है। __ आत्मा जिस पूर्व–अप्राप्त परिणाम से उस राग-देषात्मक प्रन्थि को तोड़ने की चेष्टा करती है, उसे अपूर्वकरण कहते हैं। अपूर्वकरण के द्वारा ग्रन्थि का भेद होने पर जिस परिणाम से उदय में आए हुए अन्तर्महूर्त-स्थितिवाले मिथ्यात्व दलिकों (पुद्गलों) को खपाकर एवं उनके बात अन्तर्मुहूर्त तक उदय में आनेवाले मिथ्यात्व दलिकों को दबाकर उन दलिकों के अनुभव का निरोध किया जाता है उनका प्रदेशोदय भी नहीं रहता है-पूर्ण उपशम किया जाता है, उसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं। जो मिथ्यात्व दलिकों के प्रदेश-वेदन का अभाव होता हैपूर्ण उपगम होता है; उसे अन्तरकरण कहते हैं। उस अन्तरकरण के पहले क्षण में अन्तर्मुहूत्तं स्थितिवाला औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है। कोई जीव औपमिक सम्यक्त्व को प्राप्त किए बिना ही अपूर्वकरण से मिथ्यात्व दलिकों के तीन पुज-शुद्ध, अशुद्ध और अशुद्ध बनाकर शुद्ध पुञ्ज के पुद्गलों का अनुभव करता हुआ क्षायोपमिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है। १. पर्वत सरिताओं की चट्टानें जल के भावर्तन से घिस-घिसकर चिकनी हो जाती हैं, उसे 'गिरि सरित् प्राव घोलणा' न्याय कहते
SR No.010307
Book TitleJain Siddhant Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1970
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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