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________________ पूर्व-जन्म का स्नेह रात्रि के अधकार मे वसुदेव गगा नदी के वहाव के साथ वहते रहे। प्रात का सुनहरा प्रकाश फैला तो वे ईलावर्द्धन नगर के समीप थे। ___ नदी के जल से निकल कर उन्होने पचपरमेष्ठी का ध्यान किया और नगर मे जा पहुँचे। कोई ठिकाना नही था परदेश मे उनका । 'घूमते-घामते एक सार्थवाह की दुकान के सम्मुख जा खडे हुए। सार्थवाह ने उनसे पूछा --क्या इच्छा है, परदेशी ? क्या चाहिए ? --चाहिये तो कुछ नहीं। यदि आपकी आज्ञा हो तो मै आपकी दुकान पर बैठ कर कुछ देर विश्राम कर लूँ ।। सार्थवाह भला आदमी था। उसने देखा परदेशी थका हुआ है । सूरत शक्ल से कुलीन घराने का मालूम पडता है। उसने वहाँ बैठने की इजाजत दे दी। वसुदेव सिकुड़-सिमट कर एक ओर बैठ गये। उनका वठना था कि दूकान पर ग्राहको का तांता लग गया। एक जाता, दो आ जाते. दो जाते, चार आ जाते। शाम को सूर्य डूबा तो सार्थवाह ने अपना हिसाव मिलाया । देखा एक लाख सोनैय्या का शुद्ध लाभ ! हैरत मे रह गया वह । इतना मुनाफा पहले कभी नहीं हुआ। आज क्या विगेप वात हो गई ? अचानक ही भाग्य कैसे खुल गया ? स्मृति हो आई-एक परदेशी आया था। देखा तो वसुदेव वहाँ चुपचाप वेठे थे।
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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