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________________ ४८ जैन कथामाला भाग १ पर चढा तो पर्वत शिखर पर पहुँचते ही मेरी आँखे भीतल हो गई, हृदय प्रसन्न हो गया और मैं अपने सब कप्ट भूल गया । सामने एक मुनि कायोत्सर्ग मे लीन खडे थे। मैने उनकी वदना की। वे 'धर्म लाभ' रूप आगीप देकर बोले -अरे चारुदत्त तुम इस दुर्गम भूमि में कहाँ से आ गये। देव, विद्याधर और पक्षियो के अलावा कोई दूसरा तो यहाँ आ ही नहीं सकता? मैंने विनम्रतापूर्वक अपनी सपूर्ण गाथा कह सुनाई। अपना नाम सुनकर मै समझा कि मुनिराज अवविज्ञानी है। मेरी इस भावना को उन्होंने मेरी मुख-मुद्रा ने जान लिया और भ्रम निवारणार्य वोले -भद्र । मैं वही अमितगति विद्याधर है जिसे तुमने एक वार छुडाया था। इस कारण मै तुम्हे पहले से ही जानता हूँ। -आपने मयम कब ले लिया ?--मैने जिज्ञासा प्रगट की तो उन्होने बताया -तुम्हारे पास से चलकर मैं अपनी स्त्री मुकुमालिका की खोज मे लगा। वह मुझे मिली अप्टापद पर्वत के समीप। धूमशिख उसे छोडकर भाग गया था। मैं स्त्री के साथ अपने नगर लौट गया। कुछ दिन बाद पिता ने मुझे राज्य देकर हिरण्यकुम्भ और सुवर्णकुम्भ नाम के दो चारण मुनियो के पास व्रत ग्रहण कर लिए । मेरी मनोरमा नाम की पत्नी से मिहयना और वराहग्रीव दो पुत्र हुए तथा विजयसेना नाम की दूसरी स्त्री से गधर्वसेना नाम की एक पुत्री। गवर्वसेना गायन विद्या मे अति चतुर है । अपने पुत्रो को राज्य और विद्या देकर मैं अपने पिता के गुरुओ के पास प्रवृजित हो गया। --यह कौन सा स्थान है ?-मैंने पूछा । __-लवण समुद्र के बीच कुभकटक द्वीप और इसमे यह है कर्केटक नाम का पर्वत ।-उत्तर मिला।
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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