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________________ जैन क्यामाला भाग ३१ तख्ते को प्राणाधार समझकर मैंने कस कर पकड लिया । मात दिन तक सागर की लहरो ने मुझे जिन्दगी और मौत का झूला झुलाकर तट पर ला फे का । यह तट था उदुबरावती कुल का और समीप ही था राजपुर नाम का एक नगर । ४० राजपुर नगर मे दिनकर प्रभ नाम का एक त्रिदण्डी माधु रहता था। मैं दुखी तो था ही, अपना सारा दुखउ से कह सुनाया। उसने मुझे अपने पास रख लिया । एक दिन त्रिदण्डी ने कहा - तुझे धन की आवश्यकता है । कल हम लोग पर्वत के ऊपर चलेगे । वहाँ से मै तुझे एक रस दे दूंगा । उस रस के प्रभाव से करोडो का स्वर्ण तुझे प्राप्त हो जायगा और तेरी दरिद्रता सदा को मिट जायगी । त्रिदण्डी के ये शब्द सुनकर मै बहुत प्रसन्न हुआ। दूसरे दिन प्रात काल हम दोनो चल दिये। एक भयकर वन को पार करके पर्वत पर चढने लगे । ऊपर पहुँच कर देखा तो वहाँ अनेक अभिमंत्रित शिलाऍ पडी थी । त्रिदण्डी ने एक गिला को मंत्र बल से हटाया तो दुर्ग पाताल नाम की एक भयकर कटरा दिखायी दी। हम दोनो उस कन्दरा मे प्रवेश कर गये । बहुत दूर तक चलने के बाद हम एक रस-कूप के पास पहुँचे । मैंने उसमे झॉक कर देखा तो ऐसा मालूम पडा मानो नरक का द्वार ही हो-धुप- अँधेरा था उसमे । त्रिदण्डी ने मुझसे कहा - 'इस कूप में उतर कर तू एक तुवी रस भर ले।' मैं तो तैयार था ही तुरन्त स्वीकृति दे दी । एक छीके ( मॉची ) मे बिठाकर उसने मुझे उतारा। वहाँ मैने उसमे घूमती एक जजीर और रस देखा । ज्यो ही मै तु वी मे रस भरने लगा किसी ने मुझे रोकने का प्रयास किया। मैंने पूछा - त्रिदण्डी ने मुझे रस लेने के लिए उतारा है, तुम क्यो रोकते हो ? - इसीलिए तो रोकता हूँ । - तुम हो कौन ?
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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