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________________ श्रीकृष्ण-कथा-वसुदेव का वीणावादन ३३ सभी लोगो के उचित स्थान पर वैटने के बाद गधर्वसेना सभा मडप मे आई । उसका दप-दप करता रूप सभी की आँखो मे बस गया मानो कोई देवागना ही पृथ्वी पर उतर आई हो । सभी पर एक विहगम दृष्टि डालकर वह अपने नियत आसन पर बैठ गई। अव प्रारभ हुई वीणा-वादन प्रतियोगिता। एक-एक करके सभी विदेशी और स्वदेशी युवक हारते चले गये। गधर्वसेना की आँखो मे विजय-मुस्कान खेलने लगी। अन्त मे वारी आई वसुदेवकुमार की। विजयी मुद्रा मे मुख उठाकर गधर्वसेना ने वसुदेव को देखा तो देखती ही रह गई। इतना सुन्दर रूप, ऐसा लावण्य, देवो को भी लज्जित करने वाली काति-यह मनुष्य है या देव । श्रेष्ठि-पुत्री की आँखे खुली की खुली रह गई। वह अपलक देखने लगी मानो कुमार की रूप सुधा को आँखो से पी जाना चाहती हो। ___ गायको ने जव गधर्वसेना की यह दशा देखी तो उनकी नजरे भी कमार की ओर उठ गई। यह क्या चमत्कार ? साधारण सा उपहासप्रद युवक ऐसा सुरूपवान कैसे बन गया? सभी आश्चर्य मे डूवकर काना-फूसी करने लगे। वास्तव मे कुमार वसुदेव ने इस समय अपना असली रूप प्रगट कर दिया था। लोगो की काना-फूसी कुछ उच्च स्वर मे परिणत हो गई। श्रेण्ठि-पुत्री का ध्यान भग हुआ। उसे अपनी प्रतिज्ञा याद आ गई। उसके सकेत पर दासियो ने एक वीणा कुमार के हाथो मे दे दी। कुमार ने उसमे दोप निकाल कर वापिस कर दिया। एक के बाद एक वीणाएँ आती गई और कुमार उन्हे सदोष वताकर वापिस करते रहे। अन्त मे गधर्वसेना ने अपनी वीणा दी। वीणा के तारो को मिलाते हुए वसुदेव ने पूछा -शुभे । क्या वजाऊँ?
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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