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________________ ३४० जैन कथामाला भाग ३३ एक-दो बार पुकारा तो भी स्पन्दन न हुआ। हाथ पकडकर हिलायाडुलाया किन्तु कृष्ण न उठे तो उन्होने समझा रूठ गए है। कातर स्वर मे कहने लगे-भाई | मुझे जल लाने मे देर हो गई तो तुम रूठ गए। पर क्या भाई से इतने नाराज होते है ? उठो और जल पी लो। निश्चल-निष्प्राण देह क्या उत्तर देती ' वलराम के सभी प्रयास विफल हो गए तो उन्होने मृत कलेवर को उठाकर कधे पर रखा और जगलो मे भटकने लगे। वे स्वय भी खाना-पीना भूल गए, अपनी सुध-बुध खो बैठे। निर तर कृष्ण-कृष्ण की रट लगाए रहते। मोह के तीव्र आवेग मे चिरनिद्रा को उन्होने सामान्य निद्रा समझ लिया था। इस प्रकार छह नास का समय व्यतीत हो गया। वलराम का सारथी सिद्धार्थ जो सयम पालन करके देव वना था उसने अवधिज्ञान से उनकी यह दगा देखी तो उन्हे प्रतिवोध देने वहाँ आया। उसने अपनी माया से एक पापाण-रथ का निर्माण किया। उसमे बैठकर वह पहाड से उतरने लगा। रथ लुढकता हुआ धडाम से विषम स्थान मे गिरा और चूर-चूर हो गया। देवरूप सारथी उन पापाण-खडो को पुन जोडने का उपक्रम करने लगा। यह सब कौतुक वलराम देख रहे थे। उन्होने कहा-- , -मुर्ख | क्या ये पापाण-खंड पून जड सकेगे ? देव ने प्रत्युत्तर दिया -जव मरा हुआ व्यक्ति पुन जीवित हो सकता है तो यह रथ क्यो नही तैयार हो सकता ? वलराम ने मन मे सोचा कि 'यह तो वज्रमूर्ख है कौन मुँह लगे' और अनसुनी करके आगे बढ गए । देव ने एक किसान का रूप रखा और पत्थर पर कमल उगाने लगा । बलराम ने देखकर कहा -अरे मूढ i क्या कभी पत्थर पर भी कमल लगते है ? -तो क्या कभी मुर्दे भी जीवित होते है ?-देव का प्रत्युत्तर था। बलराम ने मुँह विचकाया और आगे बढ गए। देव भी आगे
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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