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________________ २६० जैन कथामाला भाग ३३ प्राणीमात्र की इच्छा होती है कि अपने किये कार्य का परिणाम । देखे । कच्छुल नारद भी अपने कार्य का परिणाम देखने द्वारका की राज्य सभा में जा पहुँचे । श्रीकृष्ण ने उनका यथोचित आदर किया और पूछा -नारदजी | आप तो स्वच्छन्द विहारी है। सर्वत्र घूमते है। कही द्रौपदी भी नजर आई ? -क्यो द्रौपदी को क्या हुआ ? -नारदजी ने आश्चर्य प्रगट किया। -वह रात्रि को सोते हुए ही अदृश्य हो गई । न जाने कौन अपहरण कर ले गया ? -ओह अव समझा। -नारदजी बोले-मैने धातकीखण्ड के भरतक्षेत्र की अमरकका नगरी के अन्त पुर मे द्रौपदी जैसी एक स्त्री देखी थी। मै तो समझा कोई अन्य होगी। सम्भवत वही द्रौपदी हो, पर इतनी दूर कैसे पहुँच गई ? -सव आपकी माया है। -श्रीकृष्ण ने मन्द मुस्कान के साथ कहा। -मेरी क्यो, भाग्य की गति बडी बलवान है। नारदजी तुनके। -चलिए, यही सही | अव यह भी बता दीजिये कि उस नगरी का राजा कौन है ? -उस नगरी का राजा है, पद्मनाभ। -नारदजी ने बता दिया। कुछ समय तक इधर-उधर की बाते करने के बाद नारदजी वहाँ “से उड गये। वासुदेव ने अनुचर द्वारा पाडवो को बुलवाया और उनसे बोले -राजा पद्मनाभ ने द्रौपदी का अपहरण कराया है। मैं वहाँ जाकर उसे वापिस ले आऊँगा। तुम खेद मत करो। श्रीकृष्ण से आश्वासन पाकर पाडव सन्तुष्ट हुए । वासुदेव उनको साथ लेकर पूर्व दिशा के समुद्र की ओर चल दिए। समुद्र तट पर पहुँचते ही पाडवो के मुख उतर गए । वे श्रीकृष्ण से कहने लगे
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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