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________________ २८६ जन कयामाला भाग ३३ हरण करके अमरककापुरी मे राजा पद्मनाभ को सौपकर अपने स्थान को चला गया। राजा पद्मनाभ द्रौपदी की सुन्दरता पर मुग्ध होकर उसके जागने की प्रतीक्षा करने लगा। प्रात.काल द्रौपदी की निद्रा टूटी तो उसने स्वय को नए स्थान में पाया। न यह उसका अन्त पुर था और न उसके पात्र मे सोये हुए युधिष्ठिर । महल भी उसका अपना नहीं था। वह विस्मित होकर चारो ओर देखने लगी। उसके मुख से निकला--यह स्वप्न है, या इन्द्रजाल अथवा देवमाया ? -न यह स्वप्न हे, न इन्द्रजाल और न देवमाया वरन् यथार्थ है, सुन्दरी !---राजा पद्मनाभ ने सम्मुख आकर उत्तर दिया । द्रौपदी राजा पद्मनाभ को देखती रह गई। ऊपर से नीचे तक देखने के बाद उसने पूछा -भद्र ! आप कौन है ? मेरे लिए अपरिचित ? ---देवी ! परिचित होने में कितनी देर लगती है ? वैसे मैं तो तुम्हे जानता ही हूँ। तुम द्रौपदी हो। -हाँ मैं तो द्रौपदी ही हूँ किन्तु आप कौन है ? ---मैं, मैं पद्मनाभ हूँ। -कौन पद्मनाथ ? -अमरककापुरी का अधिपति । द्रौपदी ने पुन पूछा -आप अपना पूरा परिचय दीजिए । मैं इस समय कहाँ हूँ? यहाँ कैसे आगई ? पद्मनाभ ने बताया -सुमुखि ! इस समय तुम धातकीखंड द्वीप के भरतक्षेत्र की अमरककानगरी मे हो। तुम किसी बात की चिन्ता मत करो। मेरे साथ भोगो का आनद उठाओ। -तो तुमने मेरा हरण कराया है | द्रौपदी के मुख से सहसा निकल पडा। __ --तुम ठीक समझी-।
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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