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________________ २८४ जैन कथामाला भाग ३३ मे तो श्रीकृष्ण के भय से कोई राजा न उसका हरण कर सकता है और न ही किसी अन्य उपाय से उसे उत्पीडित कर सकता है।' किसी अन्य स्थान पर जाऊँ। इसका अप्रिय करना ही मुझे इप्ट है।' यह विचार करके नारद आकाश मार्ग से उड़ते हुए धातकीखड के भरतक्षेत्र की अमरकका नगरी जा पहुँचे । अमरकका नगरी का अधिपति राजा पद्मनाभ विलासी और व्यभिचारी स्वभाव का था। वह अपने क्षेत्र के वासुदेव कपिल के अधीन था। नारद ने उसे अपने इष्ट की पूर्ति मे उपयुक्त पात्र समझा और वहाँ उतर पडे । ' पद्म ने नारद का उचित आदर किया और अपना अन्त.पुर दिखाने ले गया। उसके अन्त पुर मे एक-से-एक सुन्दर स्त्रियाँ थी। रानियो का प्रदर्शन करने के वाद पद्म वोला -नारदजी | आप तो अनेक स्थानो पर वूमते है । इससे सुन्दर अन्त.पुर आपने कही और देखा है ? नारदजी खिल-खिलाकर हँस पडे । पद्मनाभ तो सोच रहा था कि वे उसकी प्रशसा करेगे किन्तु नारद की व्यगपूर्ण हँसी ने उसके अरमान मिट्टी मे मिला दिये । पूछने लगा -आप हँस क्यो पड़े? ----तुम्हारी कूप-मंडूकता पर । -कैसे ? -तुम जिस अन्त पुर को सुन्दरियो का समूह समझ रहे हो, उनमे सुन्दरता है ही कहाँ ? तुम क्या जानो सुन्दरता किसे कहते है ? पद्मनाभ के गर्व को चोट लगी— इनसे अधिक सुन्दर स्त्री और कहाँ है, बताइये। -कितनी गिनाऊँ ? बहुत है । एक से एक सुन्दर । -उनमे से सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी ही बता दीजिए। 'नारदजी कहने लगे-- -राजन् । यो तो ससार मे एक-से-एक सुन्दर स्त्री है, परन्तु
SR No.010306
Book TitleJain Shrikrushna Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1978
Total Pages373
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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